चिपको आंदोलन chipko aandolan पर्यावरण संरक्षण आंदोलन - कैसे कुछ ग्रामीण महिलाओं ने पेड़ों से चिपक कर बचाया पूरा जंगल कटने से

 




  • चिपको आंदोलन - CHIPKO AANDOLAN - पर्यावरण संरक्षण आंदोलन - 


> कैसे कुछ ग्रामीण महिलाओं ने पेड़ों से चिपक कर बचाया पूरा जंगल कटने से -



चिपको आंदोलन प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिए के कारगर उपाय है,  यह केवल वृक्षों को बचाने का आंदोलन ही नहीं है अपितु भूमि नीति में आमूल परिवर्तन की मांग कर स्थाई कल्याणकारी आर्थिक पक्ष अनाज, चारा, ईंधन, खाद, उर्वरक, कपड़ा के लिए एक आधार प्रस्तुत करता है 

इस आंदोलन का कर्म क्षेत्र अब केवल भारतवर्ष में ना होकर स्वीटजरलैंड जर्मनी और हॉलैंड भी है। 
इस आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी उल्लेखनीय है, 
चिपको आंदोलन की सफलता ने सिद्ध कर दिया कि जन समस्याओं का निदान केवल नियम कानून बनाने से ही संभव नहीं होता है 

इसके लिए जन चेतना और अधिकारों के समक्ष होना भी आवश्यक है। चिपको आंदोलन की शुरुआत 1974 में हुई, इस वर्ष इलाहाबाद स्थित खेल का सामान बनाने वाली एक कंपनी 'साईमंड' चमोली जिले में अंगू प्रजाति के वृक्षों को काटने का ठेका दिया गया। 

अंगू प्रजाति के वृक्षों की लकड़ियों का उपयोग कृषि उपकरण बनाने के लिए किया जाता था इस वृक्ष की लकड़ी को स्थानीय जनता के लिए निषिध्द कर दिया गया था। 
चमोली के रेणीगांव की सैकड़ों एकड़ क्षेत्र की नीलामी के निर्णय से जनता में असंतोष उत्पन्न हुआ। 

वन विभाग ने स्थानीय जनता के प्रतिरोध को कम करने के लिए रेणी  और आसपास के ग्रामों के पुरुषों को युद्ध काल में उनके द्वारा निभाई गई भूमिका के मुआवजा भुगतान हेतु चमोली बुलाया गया। दूसरी ओर वनकर्मी एवं वन  श्रमिक रेणी गांव पहुंच गए 

जिससे संपूर्ण गांव में खलबली मच गई , पुरुषों की अनुपस्थिति में रेडी गांव की एक साधारण महिला गौरा देवी श्रमिकों द्वारा वृक्षों को काटने से रोकने के लिए आगे आई। 

गौरा देवी ने गांव में घर-घर जाकर लड़कियों और महिलाओं को प्रतिरोध करने के लिए प्रेरित किया। मुरारी लाल एवं गौरा देवी के नेतृत्व में 27 अन्य स्त्रियां और लड़कियां पेड़ों से जाकर चिपक गई। 


>भारत में पर्यावरण संरक्षण के लिए चलाए गए प्रमुख आंदोलन - ENVIRONMENTAL PROTECTION गौरा देवी के नेतृत्व में वृक्षों को बचाने के लिए अहिंसक मार्ग 'चिपको' का प्रयोग किया गया। महिलाओं का कहना था कि यह जंगल हमारा मायका है, 
इसे हम किसी भी कीमत पर काटने नहीं देंगे। ठेकेदार और वनकर्मियों की बंदूक का भय एवं प्रलोभन भी इनकी हिम्मत कम नहीं कर पाया। 

 महिलाओं के प्रतिरोध ने वृक्ष काटने पहुंचे वन श्रमिकों का ह्रदय परिवर्तित कर दिया। उन्होंने लगातार 2  दिन व रात जंगल को घेरे रखा और जंगल प्रवेश के एक मात्र पुल को भी तोड़ दिया। 

26 मार्च 1974 इस घटना के बाद रेणी  गांव चिपको आंदोलन का कर्मक्षेत्र बन गया। इस घटना के बाद पूरे उत्तराखंड में वन संरक्षण हेतु जनता में नवीन उत्साह का संचार हुआ। 

 बाद में चिपको आंदोलन को गति प्रदान करने के लिए सुंदरलाल बहुगुणा ने 2800  किलोमीटर की पदयात्रा की। 
 आंदोलनकारियों के रूप को देखते हुए प्रदेश सरकार ने रेणी गांव क्षेत्र के वनों को काटने पर रोक लगा दी एवं उत्तर प्रदेश वन विकास निगम की स्थापना के साथ ठेकेदारी प्रथा का भी अंत हो गया। 

चिपको आंदोलन को राष्ट्रीय समर्थन व लोकप्रियता मिली। चिपको कार्यकर्ताओं की हिमाचल क्षेत्र के वनों को संरक्षित क्षेत्र घोषित करने की मांग स्वीकार कर ली गई है। 
इस हिमालय क्षेत्र के हरे वृक्षों को अगले 15 वर्षों तक काटने पर रोक लगा दी गई। 

द्वितीय चरण में चिपको आंदोलन का रचनात्मक स्वरूप वृक्षारोपण को आगे बढ़ाना रहा। चिपको आंदोलन से जनसमर्थन प्राप्त होने से अंधाधुंध कटाई पर विराम लगा।  

परिणाम स्वरुप जंगलों का संवर्धन, भूमि की उर्वरा शक्ति में वृद्धि एवं वन्य प्राणियों के शिकार पर नियंत्रण संभव हुआ। 


> इस विषय से कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न -


> चिपको आंदोलन की शुरुआत कब हुई ?
उत्तर - 26 मार्च 1974 में 

> चिपको आंदोलन की शुरुआत की जगह से हुई ?  
उत्तर - उत्तराखंड राज्य के चमोली जिले के रेणी गाँव से 

> चिपको आंदोलन में किस महिला का  योगदान मुख्य रहा ?
उत्तर - गौरा देवी  का 

> चिपको आंदोलन के प्रमुख नेता कौन थे  ?
उत्तर - सुंदरलाल बहुगुणा 
 
> चिपको आंदोलन का रचनात्मक स्वरुप क्या रहा  ?
उत्तर - वृक्षारोपण को आगे बढ़ाना 


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